000 03833nam a2200253Ia 4500
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020 _a9788126707447
040 _cIISER BPR
041 _aHindi
082 _a891.431
_bSIN
_223rd
100 _aSingh, Namvar
245 0 _aKavita ke naye pratiman
_6880.02
250 _a17th ed.
260 _aNew Delhi :
_bRajkamal Prakashan,
_c2023.
300 _a251p. :
_bhb. ;
_c22cm.
520 _aकविता के नए प्रतिमान में समकालीन हिंदी आलोचना के अंतर्गत व्याप्त मूल्यांध वातावरण का विश्लेषण करते हुए उन काव्यमूल्यों को रेखांकित करने का प्रयास किया गया है जो आज की स्थिति के लिए प्रासंगिक हैं। प्रथम खंड के अंतर्गत विशेषतः ‘तारसप्तक’, ‘कामायनी’, ‘उर्वशी’ आदि कृतियों और सामान्यतः छायावादोत्तर कविता की उपलब्धियों को लेकर पिछले दो दशकों में जो विवाद हुए हैं उनमें टकरानेवाले मूल्यों की पड़ताल की गई है; और इस प्रसंग में नए दावे के साथ प्रस्तुत ‘रस सिद्धांत’ की प्रसंगानुकूलता पर भी विचार किया गया है। दूसरे खंड में ‘कविता के नए प्रतिमान’ के नाम पर प्रस्तुत अनुभूति की ‘प्रामाणिकता’, ‘ईमानदारी’, ‘जटिलता’, ‘द्वंद्व’, ‘तनाव’, ‘विसंगति’, ‘विडंबना’, ‘सर्जनात्मक भाषा’, ‘बिंबात्मकता’, ‘सपाटबयानी’, ‘फैंटेसी’, ‘नाटकीयता’ आदि आलोचनात्मक पदों की सार्थकता का परीक्षण किया गया है। इस प्रक्रिया में यथाप्रसंग कुछ कविताओं की संक्षिप्त अर्थमीमांसा भी की गई है, जिनसे लेखक द्वारा समर्थित काव्य-मूल्यों की प्रतीति होती है। निष्कर्ष स्वरूप नए प्रतिमान एक जगह सूत्रबद्ध नहीं हैं, क्योंकि लेखक इस प्रकार के रूढ़ि-निर्माण को अनुपयोगी ही नहीं बल्कि घातक समझता है। मुख्य बल काव्यार्थ ग्रहण की उस प्रक्रिया पर है जो अनुभव के खुलेपन के बावजूद सही अर्थमीमांसा के द्वारा मूल्यबोध के विकास में सहायक होती है।
650 _aHindi Literature
650 _aHindi Poetry - History & Criticism
650 _aHistory and criticism
880 _aकविता के नए प्रतिमान
_6245.02
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_2ddc
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